गीता प्रेस, गोरखपुर >> कर्म योग का तत्त्व - भाग 2 कर्म योग का तत्त्व - भाग 2जयदयाल गोयन्दका
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प्रस्तुत पुस्तक में कर्मयोग संबंधी लेखों का संग्रह किया गया है जो गृहस्थों के विशेष उपादेय है,क्योंकि इसमें गृहस्थाश्रम में रहकर शीघ्रतिशीघ्र परमात्मा की प्राप्त कैसे हो सकती है विशेष रूप से बतलाया गया है।
प्रस्तुत हैं इसी पुस्तक के कुछ अंश
निवेदन
बहुत-से प्रेमी मित्रों का बहुत समय से यह आग्रह था कि जिस प्रकार
‘ज्ञानयोग का तत्त्व’ नाम से ज्ञानयोगविषयक लेखों का
संग्रह
एवं ‘प्रेमयोग का तत्त्व’ नाम से प्रेमयोगविषयक लेखों
का
संग्रह प्रकाशित किया गया है, वैसे ही कर्मयोग-संबंधी लेखों का भी एक
संग्रह प्रकाशित किया जाय। इसी से प्रस्तुत पुस्तक में कर्मयोग संबंधी
मेरे लेखों का संग्रह किया गया है, जो समय-समय पर
‘कल्याण’
में प्रकाशित हुए हैं।
यह पुस्तक गृहस्थियों के लिये विशेष उपादेय है, क्योंकि इसमें गृहस्थाश्रम में रखकर बहुलता से काम करते हुए भी शीघ्रातिशीघ्र परमात्मा की प्राप्ति कैसे हो सकती है-यह विशेष रूप से बतलाया गया है।
गीता में भगवान् से कल्याण के लिये दो ही निष्ठाएँ बतलायी हैं। उनमें कर्मयोग के ही अन्तर्गत भक्तियोग है। इसलिये इन लेखों में भक्ति का भी विषय यत्र-तत्र आया है। ये लेख समय-समय पर विभिन्न दृष्टि से लिखे हुए हैं। अत: विषय की पूर्णता के खयाल से कई प्रसंग इन लेखों में बार-बार भी आये हैं। किन्तु साधकों को इस पुनरुक्तिदोष को दोष नहीं समझना चाहिये; क्योंकि साधना को भलीभाँति समझने और परिपक्व बनाने के लिये उसके सिद्धान्तों को बार-बार सुनने, पढ़ने, समझने और मनन करने की आवश्यकता होती है। अन्यथा बहुत-सी ऐसी जटिल बातें होती हैं जो साधारण साधकों के एक बार सुनने-पढ़ने मात्र से समझ में नहीं आतीं। फिर कर्मयोग का विषय तो बहुत ही गम्भीर है। स्वयं भगवान् के वचन हैं- ‘गहना कर्मणो गति:।’
अतएव कर्मयोग के साधकों के लिये यह परम आवश्यक है कि वे कर्मयोग के तत्त्व-रहस्य को समझें और तदनुसार साधन करने का प्रयत्न करें। इसमें साधकों को यह संग्रह सहायक हो सकता है, इसी से इसे प्रकाशित किया जा रहा है।
यह पुस्तक गृहस्थियों के लिये विशेष उपादेय है, क्योंकि इसमें गृहस्थाश्रम में रखकर बहुलता से काम करते हुए भी शीघ्रातिशीघ्र परमात्मा की प्राप्ति कैसे हो सकती है-यह विशेष रूप से बतलाया गया है।
गीता में भगवान् से कल्याण के लिये दो ही निष्ठाएँ बतलायी हैं। उनमें कर्मयोग के ही अन्तर्गत भक्तियोग है। इसलिये इन लेखों में भक्ति का भी विषय यत्र-तत्र आया है। ये लेख समय-समय पर विभिन्न दृष्टि से लिखे हुए हैं। अत: विषय की पूर्णता के खयाल से कई प्रसंग इन लेखों में बार-बार भी आये हैं। किन्तु साधकों को इस पुनरुक्तिदोष को दोष नहीं समझना चाहिये; क्योंकि साधना को भलीभाँति समझने और परिपक्व बनाने के लिये उसके सिद्धान्तों को बार-बार सुनने, पढ़ने, समझने और मनन करने की आवश्यकता होती है। अन्यथा बहुत-सी ऐसी जटिल बातें होती हैं जो साधारण साधकों के एक बार सुनने-पढ़ने मात्र से समझ में नहीं आतीं। फिर कर्मयोग का विषय तो बहुत ही गम्भीर है। स्वयं भगवान् के वचन हैं- ‘गहना कर्मणो गति:।’
अतएव कर्मयोग के साधकों के लिये यह परम आवश्यक है कि वे कर्मयोग के तत्त्व-रहस्य को समझें और तदनुसार साधन करने का प्रयत्न करें। इसमें साधकों को यह संग्रह सहायक हो सकता है, इसी से इसे प्रकाशित किया जा रहा है।
-जयदयाल गोयन्दका
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